—— ग़ज़ल ———–
मत समझ तेरे ग़म ज़ियादा हैं
सब के हिस्से में कम, ज़ियादा हैं
नम हुआ जा रहा है काग़ज़ भी
दर्द ज़ेरे क़लम ज़ियादा हैं __
” क़ैस ” होना हंसी मज़ाक़ नहीं
इश्क़ मैं पैच व ख़म ज़ियादा हैं _
रो लिए कल तमाम ज़ख्मों पर
आज हम ताज़ा दम ज़ियादा हैं
जो लपेटे हैं क़ीमती कपड़े__
जिस्म वो मोहतरम ज़ियादा हैं
——— राज़िक़ अंसारी ——–