غزل

…………………غزل ………………….

تم کسی طور کسی شکل نہیں کر سکتے

اس زمیں سے مجھے بے دخل نہیں کر سکتے

ٹھیک ہے آپ میری جان تو لے سکتے ہیں

میری آواز مگر قتل نہیں کر سکتے

تجھکو نقصان تو پہنچانا بہت دور کی بات

تیری تصویر کو  بد شکل نہیں کر سکتے

شعر کہنے کا سلیقہ ہے بہت بعد  کی بات

ٹھیک سے ہم تو ابھی نقل نہیں کر سکتے

ایسے حالات میں ہم دل کو طلب کرتے ہیں

فیصلہ رکھ کے جہاں عقل نہیں کر سکتے

جو بھی بدلاﺅ ہے گھر میں وہ ہمیں کرنا ہے

ہم انظارِ نئی نسل نہیں کر سکتے

………………..رازق انصاری

ग़ज़ल

ग़ज़ल —————–

ज़िन्दगी जब तलक तमाम न हो

रास्ते में कहीं क़याम न हो

घर में रिश्ते बिखर चुके लेकिन

दुश्मनों में ख़बर ये आम न हो

नफ़रतों पर लगाओ पाबन्दी

प्यार पर कोई रोक थाम न हो

कुछ ताअल्लुक़ नहीं, नहीं न सही

ख़त्म लेकिन दुअा सलाम न हो

हंसते हंसते चलो जुदा हो जाएं

आंसुओं पर सफ़र तमाम न हो

—- राज़िक़ अंसारी ———

ग़ज़ल

—– ग़ज़ल ———-

हमारे घर में आना भूल जाएं
ग़म अपना आशिना भूल जाएं

सफ़र इस बार मक़तल की तरफ़ है
मुझे कर के रवाना भूल जां

चलो फिर दिल के रस्ते खोलते हैं
चलो जो है पुराना भूल जाएं

कोई मतलब नहीं फिर दोस्ती का
अगर वो दिल दुखाना भूल जाएं

कई लोगों को हमने खो दिया है
वफ़ाएं आज़माना भूल जाएं

— राज़िक़ अंसारी ——-


ग़ज़ल

——– ग़ज़ल ———–

सबब कुछ भी नहीं था बात बिगड़े

सियासी खेल में हालात बिगड़े

तबीयत कैस के जेसी थी मेरी

मेरे सब यार मेरे साथ बिगड़े

हमारे ख़ैर ख़्वाहों में हमीं थे

हमारे घर के जब हालात बिगड़े

अंधेरी रात कोशिश में लगी है

चरागों से हवा की बात बिगड़े

चलो अब इश्क़ में हम जान दे दें

किसी से क्यों हमारी बात बिगड़े

———- राज़िक़ अंसारी ———-

ग़ज़ल

———– ग़ज़ल ————–

करते हैं तकरार मज़े में रहते हैं

फिर भी हम सब यार मज़े में रहते हैं

हिजरत करने वालों को मालूम नहीं

हम पुल के इस पार मज़े में रहते हैं

बाज़ू वालों को दुख है तो बस ये है

लोग पस ए दीवार मज़े में रहते हैं

पतझड़ हो या हरियाली का मौसम हो

हम जैसे किरदार मज़े में रहते हैं

आस पास की बस्ती वालों से कह दो

करते हैं जो प्यार मज़े में रहते हैं

राज़िक़ अंसारी :

( हिजरत=पलायन)

ग़ज़ल

—— ग़ज़ल ———–

मत समझ तेरे ग़म ज़ियादा हैं

सब के हिस्से में कम, ज़ियादा हैं

नम हुआ जा रहा है काग़ज़ भी

दर्द ज़ेरे क़लम ज़ियादा हैं __

” क़ैस ” होना हंसी मज़ाक़ नहीं

इश्क़ मैं पैच व ख़म ज़ियादा हैं _

रो लिए कल तमाम ज़ख्मों पर

आज हम ताज़ा दम ज़ियादा हैं

जो लपेटे हैं क़ीमती कपड़े__

जिस्म वो मोहतरम ज़ियादा हैं

——— राज़िक़ अंसारी ——–

ग़ज़ल

———-ग़ज़ल ————-

यादों ने क्या ज़ुल्म किए दिल जानता है

कैसे हम कल रात जिए दिल जानता है

किन लोगों का हाथ रहा बर्बादी में ………..

किस किस ने एहसान किए दिल जानता है

हम को अपने ग़म पोशीदा रखने थे …..

हमने कितने अश्क पिए दिल जानता है

ग़ैर तो आख़िर ग़ैर उन से क्या मतलब

अपनों ने वो ज़ख़्म दिए दिल जानता है

टूटे ख़्वाबों की किरचों ने सारी रात …….

आँखों पर क्या जब्र किए दिल जानता है

…………….. राज़िक़ अंसारी ………………

ग़ज़ल

—– ग़ज़ल ———-

हमारे घर  में आना भूल जाएं

ग़म अपना आशिना भूल जाएं

सफ़र इस बार मक़तल की तरफ़ है

मुझे कर के रवाना भूल जाएं

चलो फिर दिल के रस्ते खोलते हैं

चलो जो है पुराना भूल जाएं

कोई मतलब नहीं फिर दोस्ती का

अगर वो दिल दुखाना भूल जाएं

कई लोगों को हमने खो दिया है

वफ़ाएं आज़माना भूल जाएं

— राज़िक़ अंसारी ——-

ग़ज़ल

ग़ज़ल.

——— ग़ज़ल ———-

 

हर जगह हर मुक़ाम देखते हैं

सिर्फ़ तेरा ही नाम देखते हैं

 

रोकने में किसे है दिलचस्पी

सब यहाँ क़त्ले आम देखते हैं

 

क़ाबलियत से किस को मतलब है

लोग तो सिर्फ़ नाम देखते हैं

 

ज़िंदगी नाम के मुसाफ़िर का

कब कहाँ है क़याम देखते हैं

 

अपनी औक़ात हम को है मालूम

आईना सुबह शाम देखते हैं

 

—— राज़िक़ अंसारी ——-

 

ग़ज़ल

——— ग़ज़ल ———-

हर जगह हर मुक़ाम देखते हैं

सिर्फ़ तेरा ही नाम देखते हैं

रोकने में किसे है दिलचस्पी

सब यहाँ क़त्ले आम देखते हैं

क़ाबलियत से किस को मतलब है

लोग तो सिर्फ़ नाम देखते हैं

ज़िंदगी नाम के मुसाफ़िर का

कब कहाँ है क़याम देखते हैं

अपनी औक़ात हम को है मालूम

आईना सुबह शाम देखते हैं

—— राज़िक़ अंसारी ——-